डॉ. आंबेडकर का जीवन बहुत ही विस्तृत और बहुआयामी था l लेकिन यह देश का दुर्भाग्य ही है कि उनकी समग्रता, उनके अध्ययन और उनके विश्लेषण को बहुत ही कम लोग समझ पाए l कई लोगों ने उनके जीवन का एक ही पक्ष देखा है और उसी के आधार पर अपना मन बना लिया l
जय भीम : जय भारत
We have made quality our habit. It’s not something that we just strive for – we live by this principle every day.
दिनांक 14 अप्रैल 1891 और भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम सम्वत 1948 के पौष मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि मंगलवार को पुनर्वसु नक्षत्र में ब्रिटिश भारत के मध्य प्रान्त की महू छावनी में श्री रामजी सकपाल के यहाँ एक बालक का जन्म हुआ । यह बालक अपने 14 भाई बहनों में सबसे छोटा था । जिसका नाम "भिवा" रखा गया l श्री रामजी सकपाल, भारतीय सेना की महू छावनी में सेवारत थे तथा यहां काम करते हुये वे सूबेदार के पद तक पहुँचे थे । उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की थी । उनका परिवार कबीर पंथ को माननेवाला मराठी मूूल परिवार का था और वो वर्तमान महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में आंबडवे गाँव के निवासी थे । वे हिन्दू महार जाति से संबंध रखते थे, जो तब वंचित समाज से सम्बन्ध रखती थी और इस कारण उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव सहन करना पड़ता था ।
अपनी जाति के कारण बालक भीम को सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ता था । पढ़ाई में सक्षम होने के बाद भी छात्र भीमराव को छुआछूत के कारण अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था । 7 नवम्बर 1900 को रामजी सकपाल ने सातारा नगर में राजवाड़ा चौक पर स्थित शासकीय हाईस्कूल (अब प्रतापसिंह हाईस्कूल) में अपने बेटे भीमराव का नाम "भिवा रामजी आंबडवेकर" दर्ज कराया । आम्बेडकर का मूल उपनाम "सकपाल" की बजाय "आंबडवेकर" लिखवाया था, जो कि उनके "आंबडवे" गाँव से संबंधित था । क्योंकी कोकण प्रांत के लोग अपना उपनाम गाँव के नाम से रखते थे, अतः आम्बेडकर के आंबडवे गाँव से "आंबडवेकर" उपनाम स्कूल में दर्ज करवाया गया । बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा केशव आंबेडकर जो भिवा की पढ़ने के प्रति लगन और प्रतिभा के कारण उससे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से 'आंबडवेकर' हटाकर ' आंबेडकर' उपनाम जोड़ दिया । तब से आज तक वे आंबेडकर नाम से जाने जाते हैं । रामजी सकपाल परिवार के साथ बंबई (अब मुंबई) चले आये । अप्रैल 1906 में, जब भीमराव लगभग 15 वर्ष आयु के थे, तो नौ साल की लड़की रमाबाई से उनकी शादी कराई गई थी । तब वे पाँचवी अंग्रेजी कक्षा पढ़ रहे थे । उन दिनों भारत में बाल-विवाह का प्रचलन था ।
"कृष्णाजी केशव आंबेडकर" एक ऐसा ब्राह्मण शिक्षक जिसने अपने शिष्य "भिवा" की योग्यता और लगन को देखकर उसे अपना बेटा बना लिया था l
डॉ. भीमराव आंबेडकर का बचपन का नाम "भिवा" था l
1897 में, भिवा (भीमराव आंबेडकर) का परिवार मुंबई चला गया जहां उन्होंने एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित शासकीय हाईस्कूल में आगे कि शिक्षा प्राप्त की। 1907 में, उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अगले वर्ष उन्होंने एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया, जो कि बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध था । इस स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने समुदाय से वे पहले व्यक्ति थे ।
1912 तक उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में कला स्नातक (बी॰ए॰) प्राप्त की और बड़ौदा राज्य सरकार में नौकरी प्राप्त कर ली । अब वे अपनी पत्नी के साथ बडौदा जाकर रहने लगे और काम करना शुरू कर दिया लेकिन उन्हें अपने बीमार पिता को देखने के लिए उन्हें मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनका 2 फरवरी 1913 को निधन हो गया ।
1913 में आंबेडकर 22 वर्ष की आयु में संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए जहां उन्हें सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय (बड़ौदा के गायकवाड़) द्वारा स्थापित एक योजना के अंतर्गत न्यूयॉर्क नगर स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षा के अवसर प्रदान करने के लिए तीन वर्ष के लिए 11.50 डॉलर प्रति माह बड़ौदा राज्य की छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी । वहां पहुँचकर वे लिविंगस्टन हॉल में पारसी मित्र नवल भातेना के साथ बस गए । जून 1915 में उन्होंने अपनी कला स्नातकोत्तर (एम॰ए॰) परीक्षा पास की, जिसमें अर्थशास्त्र प्रमुख विषय और समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र और मानव विज्ञान यह अन्य विषय थे । उन्होंने स्नातकोत्तर के लिए प्राचीन भारतीय वाणिज्य (Ancient Indian Commerce) विषय पर शोध कार्य प्रस्तुत किया । आंबेडकर जॉन डेवी और लोकतंत्र पर उनके काम से प्रभावित थे ।
1916 में, उन्हें अपना दूसरा शोध कार्य भारत का राष्ट्रीय लाभांश - एक ऐतिहासिक और विश्लेषणात्मक अध्ययन (National Dividend of India - A Historical and Analytical Study) के लिए दूसरी कला स्नातकोत्तर प्रदान की गई और फिर उन्होंने लंदन की राह ली । 1916 में अपने तीसरे शोध कार्य ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास (Evolution of Provincial Finance in British India) के लिए अर्थशास्त्र में पीएचडी प्राप्त की, जबकि उन्हें अपने शोध कार्य को प्रकाशित करने के 11 साल बाद 1927 में अधिकृत रुप से पीएचडी प्रदान की गई थी । 9 मई को, उन्होंने मानव विज्ञानी अलेक्जेंडर गोल्डनवेइज़र द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भारत में जातियां, उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास नामक एक शोध पत्र प्रस्तुत किया, जो उनका पहला प्रकाशित पत्र था । 3 वर्ष तक की अवधि के लिये मिली हुई छात्रवृत्ति का उपयोग उन्होंने केवल दो वर्षों में अमेरिका में पाठ्यक्रम पूरा करने में किया ।
लंदन जाने के बाद उन्होंने ग्रेज़ इन में बैरिस्टर कोर्स (विधि अध्ययन) के लिए प्रवेश लिया और साथ ही लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी प्रवेश लिया जहां उन्होंने अर्थशास्त्र की
डॉक्टरेट (Doctorate) थीसिस पर काम करना शुरू किया । जून 1917 में
विवश होकर उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौरपर बीच में ही छोड़ कर
भारत लौट आए क्योंकि बड़ौदा राज्य से मिली उनकी छात्रवृत्ति अब
तक समाप्त हो गई थी । लौटते समय दुर्भाग्य ने एक बार फिर आहट दी
और उनके पुस्तक संग्रह को उस जहाज से अलग जहाज पर भेजा गया
था जिसे जर्मन पनडुब्बी के टारपीडो द्वारा डुबो दिया गया । ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था । उन्हें चार साल के भीतर अपने थीसिस के लिए लंदन लौटने की अनुमति मिली थी । भारत आकर उन्होंने बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में नौकरी की और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे । यहाँ तक कि उन्होंने अपना परामर्श व्यवसाय भी आरम्भ किया । उनके एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी । 1920 में कोल्हापुर के शाहू जी महाराज, अपने पारसी मित्र नवल और कुछ निजी बचत के सहयोग से वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सफल हो गए तथा 1921 में विज्ञान स्नातकोत्तर (एम॰एससी॰) प्राप्त की, जिसके लिए उन्होंने 'प्रोवेन्शियल डीसेन्ट्रलाईज़ेशन ऑफ इम्पीरियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया' (ब्रिटिश भारत में शाही अर्थ व्यवस्था का प्रांतीय विकेंद्रीकरण) खोज ग्रन्थ प्रस्तुत किया था । 1922 में उन्हें ग्रेज इन ने बैरिस्टर-एट-लॉज डिग्री प्रदान की गई और उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया । 1923 में उन्होंने अर्थशास्त्र में डी॰एससी॰ (डॉक्टर ऑफ साईंस) उपाधि प्राप्त की । उनकी थीसिस "दी प्राब्लम आफ दि रुपी: इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन" (रुपये की समस्या: इसकी उत्पत्ति और इसका समाधान) पर थी । लंदन का अध्ययन पूर्ण कर भारत वापस लौटते हुये भीमराव अम्बेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा । लेकिन समय की कमी से वे विश्वविद्यालय में अधिक नहीं ठहर सकें । उनकी तीसरी और चौथी डॉक्टरेट्स (एलएल॰डी॰, कोलंबिया विश्वविद्यालय, 1952 और डी॰लिट॰, उस्मानिया विश्वविद्यालय, 1953) सम्मानित उपाधियाँ थीं ।
32 डिग्री और 9 भाषाओँ के जानकार विद्वान
सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष
1919 में ब्रिटिश सरकार ने भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथबरो समिति के समक्ष भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर डॉ. आंबेडकर को साक्ष्य देने के लिये आमंत्रित किया । इस सुनवाई के दौरान डॉ. आंबेडकर ने वंचित समाज को अलग से निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की । 1920 में बंबई से उन्होंने साप्ताहिक "मूकनायक" के प्रकाशन की शुरूआत की । यह प्रकाशन शीघ्र ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब डॉ. आंबेडकर ने इसका प्रयोग उस समय के रूढ़िवादी राजनेताओं के विचारों व जातिय भेदभाव के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया । उनके द्वारा वंचित वर्ग के एक सम्मेलन में दिये गये जोरदार भाषण ने 'कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ' को बहुत प्रभावित किया, जिनका भीमराव आंबेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया ।" वैचारिक स्तर पर ज्ञान के कौशल की उनकी यह बड़ी जीत थी l
बॉम्बे उच्च न्यायालय में विधि (कानून) का अभ्यास करते हुए, उन्होंने वंचित समाज की शिक्षा को बढ़ावा देने और उन्हें ऊपर उठाने के अनेक प्रयास किये । उनका पहला संगठित प्रयास केंद्रीय संस्थान बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना था, जिसका उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देना था। अंग्रेजों द्वारा दिए नाम अनुसूचित जाति के अधिकारों की रक्षा के लिए उन्होंने "मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता" जैसी पांच पत्रिकाएं निकालीं ।
सन 1927 में यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन के विरोध में भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये । डॉ. आंबेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिश लिखकर भेजीं, जहां इसकी रिपोर्ट को अंग्रेजों द्वारा अनदेखा कर दिया गया l
अब तक डॉ॰ आंबेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध एक व्यापक एवं सक्रिय आंदोलन आरम्भ करने का निर्णय किया । उन्होंने सार्वजनिक आन्दोलनों, सत्याग्रहों और जलूसों के द्वारा पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें वंचितों को भी मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये संघर्ष किया । उन्होंने "महाड" शहर में शूद्र समुदाय को भी नगर की चवदार जलाशय से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया । जिसका विनायक दामोदर सावरकर ने खुलकर समर्थन किया था l 1927 के अंत में सम्मेलन में, डॉ. आंबेडकर ने "जाति भेदभाव" और "छुआछूत" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए, प्राचीन हिन्दू पाठ और मनुस्मृति के कई पद जो खुलकर जातीय भेदभाव व जातिवाद का समर्थन करते थे की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जलाईं ।
1930 में डॉ. आंबेडकर ने तीन महीने की तैयारी के बाद कालाराम मन्दिर सत्याग्रह आरम्भ किया । कालाराम मन्दिर आंदोलन में लगभग 15,000 स्वयंसेवक इकट्ठे हुए, जिससे नाशिक की सबसे बड़ी प्रक्रियाएं हुईं । जुलूस का नेतृत्व एक सैन्य बैंड ने किया था, स्काउट्स का एक बैच, महिलाएं और पुरुष पहली बार भगवान को देखने के लिए अनुशासन, आदेश और दृढ़ संकल्प में चले गए थे ।
अपने इन प्रयासों से डॉ. आंबेडकर ने वंचित समाज को "अपने धार्मिक अधिकार" लेने के लिए बहुत ही अडिगता के साथ संघर्ष किया और कहा "यह मेरा धर्म है, यह मेरा भगवान है किसी कि बपौती नहीं हैं जो मुझे रोक ले..."! डॉ. भीमराव आंबेडकर के इन विचारों का समर्थन केवल कुछ रुढ़िवादी राजनेताओं के अतिरिक्त समस्त हिन्दू समाज ने किया l
अब तक भीमराव आंबेडकर भारत में वंचित समाज की आवाज उठाने वाली बहुत बड़ी राजनीतिक हस्ती बन चुके थे । उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की थी ।
डॉ. आंबेडकर, वीर सावरकर और महात्मा गाँधी
जब विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर) डॉ. आंबेडकर से चर्चा करने के बाद महात्मा गाँधी से चर्चा की और उस बातचीत के बारे में पता चलने पर डॉ. आंबेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता महात्मा गाँधी की भी आलोचना की थी, डॉ. आंबेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने देश के वंचित समाज के लिये एक ऐसी अलग राजनीतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों की ही कोई दखल ना हो । लंदन में 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन यानी प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान आंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार "शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है ।"
"हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा और स्वयं... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है ।"
"शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है ।"
डॉ. भीमराव आंबेडकर
8 अगस्त, 1930 प्रथम गोलमेज सम्मलेन, लन्दन
डॉ. आंबेडकर की वंचित समाज में बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भी, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया । वहाँ उनकी अनुसूचित जातियों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर महात्मा गाँधी से तीखी बहस हुई और अंत में ब्रिटिश डॉ. आंबेडकर के विचारों से सहमत हुए। 1932 में जब ब्रिटिशों ने आंबेडकर के विचारों के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की । यह घोषणा गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श का ही परिणाम था । इस समझौते के तहत आंबेडकर द्वारा उठाई गई राजनैतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए पृथक निर्वाचिका में अनुसूचित वर्ग को दो वोटों का अधिकार प्रदान किया गया । इसके अंतर्गत एक वोट से अनुसूचित समाज अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे व दूसरे वोट से उन्हें सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनने की आजादी थी । इस प्रकार अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि केवल उन्हीं के ही वोट से चुने जाने थे । इस प्रावधान से अब अनूसूचित जाति के प्रतिनिधि को चुनने में सामान्य वर्ग का कोई दखल शेष नहीं रहा था । लेकिन वहीं अनुसूचित वर्ग अपनी दूसरी वोट का इस्तेमाल करते हुए सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने में अपनी भूमिका निभा सकता था । ऐसी स्थिति में अनुसूचित वर्ग द्वारा चुना गया उम्मीदवार उनकी की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था । इस समय महात्मा गाँधी पूना की येरवडा जेल में थे । इस घोषणा के होते ही गाँधी ने पहले तो प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने की मांग की । लेकिन जब उनको लगा कि उनकी मांग पर कोई अमल नहीं किया जा रहा है तो उन्होंने आमरण अनशन की घोषणा कर दी । तो डॉ. आंबेडकर ने कहा कि "यदि गाँधी देश की स्वतंत्रता के लिए यह अनशन रखता तो अच्छा होता, लेकिन उन्होंने अनुसूचित जाति के लोगों के विरोध में यह अनशन रखा है, जो बेहद अफसोसजनक है । जबकि भारतीय ईसाइयोयों, मुसलमानों और सिखों को मिले इसी (पृथक निर्वाचन के) अधिकार को लेकर गाँधी को कोई आपत्ति नहीं हुई।" उन्होंने यह भी कहा कि "गाँधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं । भारत में न जाने कितने ऐसे लोगों ने जन्म लिया और चले गए, गाँधी की जान बचाने के लिए मैं दलितों के हितों का त्याग नहीं कर सकते ।" अब आमरण अनशन के कारण गाँधी की तबियत लगातार बिगड रही थी । गाँधी के प्राणों पर भारी संकट आन पड़ा । और देश में बढ़ते दबाव को देख डॉ. आंबेडकर 24 सितम्बर 1932 को शाम पांच बजे येरवडा जेल पहुँचे । यहां गाँधी और डॉ. आंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में "पूना पैक्ट" के नाम से जाना गया । इस समझौते मे डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जाति को मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ने की घोषणा की । लेकिन इसके साथ ही डॉ. आंबेडकर ने अपनी बुद्धिमत्ता से 78 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली । इसके साथ ही अनुसूचित वर्ग को शिक्षित करने के लिए प्रत्येक प्रांत मे शिक्षा अनुदान मे पर्याप्त राशि निर्धारित करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के अनुसूचित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया । असल में डॉ. आंबेडकर यह समझौता नहीं करना चाहते थे, उन्होंने गाँधी के इस अनशन को अनुसूचित जातियों को उनके राजनैतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गाँधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया । आख़िरकार 1942 में डॉ. आंबेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, उन्होंने अपने पुस्तक ‘स्टेट ऑफ मायनॉरिटी’ में भी पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की हैं । भारतीय रिपब्लिकन पार्टी द्वारा भी इससे पहले कई बार "धिक्कार सभाएँ" हुई हैं ।
इसी वर्ष डॉ. आंबेडकर ने 15 मई 1936 को अपनी पुस्तक 'एनीहिलेशन ऑफ कास्ट' (जाति प्रथा का विनाश) प्रकाशित की, जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी । इस पुस्तक में उन्होंने ने रुढ़िवादी नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की । उन्होंने वंचित समाज के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी निंदा की । बाद में, 1955 के बीबीसी साक्षात्कार में, उन्होंने महात्मा गाँधी के दोहरे चरित्र को बताते हुए उन पर उनके गुजराती भाषा के पत्रों में जाति व्यवस्था का समर्थन करना तथा अंग्रेजी भाषा पत्रों में जाति व्यवस्था का विरोध करने का आरोप लगाया ।
डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक "What Congress and Gandhi have done to the Untouchables ?" (काँग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिये क्या किया ?) में गाँधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया, उन्होंने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया ।
देशभक्त और दूरदर्शी डॉ. भीमराव अम्बेडकर
पाकिस्तान की मांग कर रहे मुस्लिम लीग के लाहौर रिज़ोल्यूशन (1940) के बाद डॉ. आंबेडकर ने "थॉट्स ऑन पाकिस्तान" नामक 400 पृष्ठों वाली एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने अपने सभी पहलुओं में "पाकिस्तान की अवधारणा" का विश्लेषण किया । इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की । साथ ही यह तर्क भी दिया कि हिन्दुओं को मुसलमानों के पाकिस्तान का स्वीकार करना चाहिए । उन्होंने प्रस्तावित किया कि मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को
अलग करने के लिए पंजाब और बंगाल की प्रांतीय सीमाओं को फिर से तैयार किया जाना चाहिए । उन्होंने सोचा कि मुसलमानों को प्रांतीय सीमाओं को फिर से निकालने के लिए कोई आपत्ति नहीं हो सकती है । अगर उन्होंने किया, तो वे बहुत हद तक "अपनी मांग की प्रकृति को समझ नहीं पाए"। विद्वान वेंकट ढलीपाल ने कहा कि थॉट्स ऑन पाकिस्तान ने "एक दशक तक भारतीय राजनीति को रोका"। इसने मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच संवाद के पाठ्यक्रम को निर्धारित किया, जो भारत के विभाजन के लिए रास्ता तय कर रहा था । हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्नाह और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे l क्योंकि जिन्नाह ने तर्क दिया कि हिन्दुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, धार्मिक राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी । उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया । जब डॉ. आंबेडकर ने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये यही पर्याप्त कारण हैं ? डॉ. आंबेडकर ने सुझाव दिया कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था । उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये । कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिन्दू और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते ? उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा । विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी । भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर की गई यह भविष्यवाणी सही थी ।
डॉ. आंबेडकर ने बॉम्बे उत्तर से 1952 का पहला भारतीय लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन वे उनके पूर्व सहायक और कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलकर से हार गए । 1952 में डॉ. आंबेडकर राज्य सभा के सदस्य बन गए । इसके बाद उन्होंने भंडारा से 1954 के उपचुनाव में फिर से लोकसभा में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन वे तीसरे स्थान पर रहे (यहाँ कांग्रेस पार्टी जीती) । 1957 में दूसरे आम चुनाव के समय तक डॉ. अम्बेडकर की निर्वाण (मृत्यु) हो गई थी ।